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Sunday, January 20, 2008

a song by sahir

साहिर लुधियान्वी की यह कविता सुनिए

चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाएं हम दोनों

मैं तुम से कोइ उम्मीद रखूँ दिल-नवज़ी की
तुम मेरी तरफ देखो ग़लत-अंदाज नजरों से
मेरे दिल की धड़कन लड़खड़ाए मेरी बातों में
ज़ाहिर हो तुम्हारी कश्म-कश का राज़ नज़रों में

तुम्हें भी कोई उलझन रोकती है पेश्कद्मी से

मुझे भी लोग कहते हैं, की यह जलवे पराये हैं

मेरे हमराह भी रुसवाइयां हैं मेरे माझी की

तुम्हारे साथ भी गुजरी हुई रातों के साए हैं